भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आलोक / सुधीर सक्सेना

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:11, 25 मार्च 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह=समरकंद में...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
स्त्री
रोज बालती है दिया
बिला नागा

आँचल की ओट में धर
अलाय बलाय और फूँकों से बचा
ले जाती है दिये को
अंधी कोठरी में

दिये से लड़ती है वह
तमाम बैरियों से
अहर्निश

सदियों से
बिला नागा
दिया बाल रही है
स्त्री

वह स्त्री
सूर्य के लिये
सबसे बड़ी शर्म है
ब्रह्माण्ड में

जब तक
स्त्री है
आसमान में बिला नागा
फैलती रहेगी रोशनी।
उगता रहेगा सूर्य।