भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैने टाँग लिया है / रति सक्सेना

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 21:22, 22 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रति सक्सेना }} मैने टाँग लिया है<br> सफर अपने दायें कंधे प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैने टाँग लिया है
सफर अपने दायें कंधे पर
चल पड़ती हूँ आगे
या फिर छोड़ती जाती हूँ
उन सभी को
जो मेरे साथ चलने का
दम नहीं रखते

फिर भी साथ चले आ रहे हैं
वे सब
जो मुझ से
खास परिचय नहीं रखते
नदी के किनारे फुदकते
परदेशी परिंदे
खिड़की का परदा उठा कर
झाँकता हुआ घर
बचपन के आगे दौड़ता पहिया
उन सब के पीछे चली आ रही हैं
वे सब यादे, एक काले बादल की शक्ल में
जो कल पहाड़ बन कर खड़ी हो जाएँगी
मेरी खिड़की के सामने