मॉल में लड़कियाँ / संजय कुमार शांडिल्य
आधी फ़ीसदी की छूट के बावजूद
मुझे यह मेरी दुनिया नहीं लगती
पोस्टर थे जो कह रहे थे स्वतंत्रता
कितना ऊपर उठ सकती थी
कॉकेशियन नस्ल के लोग
मुस्कुराते हुए साथ-साथ थे
वे चाहते थे कि हम अपनी
पहुँच बढ़ाएँ इसलिए वे
दूरियाँ घटा रहे थे
हमारी समस्या थी हमारे लोग
जिनके लिए जूते फ़कत पाँच-सात सौ
फ्राक हज़ार-बारह सौ
और बाहर का खाना
महीने-दो महीने में मसाले-दोसे
भर का मसला था
जो प्यार इन नई झक्क सफ़ेद
इमारतों से आता हमारे लिए
वह फरेब था
इसका पता हमें चलता
तब तक देर हो चुकी होती थी
बाहर धकलने वाले शीशे
के दरवाज़े थे
जिनको खोलते हुए
हाथ सहमते थे
कि इन्हें आगे की ओर
खींचे या पीछे धक्का दें
नियोन में जो चीज़ों के
भाव चमकते थे
वे खाने की टेबुल पर
मेनू में बदल जाते थे
मैं उड़ना चाहती थी
कॉकेशियन उस हम-उम्र
युवती की तरह
यह ख़्वाब मैंने मॉल की
स्वचालित सीढ़ियों को
चढ़ते हुए देखा
एक भरे पर्स के उस प्रौढ़
के साथ
जिसे उड़ती हुई
युवतियाँ पसन्द थी
प्रेम जितना दिखता
वह वहीं छूट जाता था
इस शहर का मौसम
तेज़ी से बदल रहा था
पृथ्वी और सूरज के
सम्बन्ध से अलग
मैं इसी दुनिया में रहना चाहती हूँ
मेरा पुरूष साथी परिपक्वता से हँसता है
तुम यहाँ आ तो सकती हो
यहाँ रह नहीं सकती
ललचाने भर दुनिया की सारी जगहें
खुली अलमारियों में रखी थी
हम उड़ना चाहते थे मगर उड़ नहीं
सकते थे
एक लम्पट-सी ख़ुशी चारों तरफ़
उड़ रही थी
एक उदास-सा फरेब मेरे
साथ-साथ चल रहा था
न यह मेरे भरोसे की दुनिया थी
न मेरी दुनिया मेरी पसन्द की
यह आधी फ़ीसदी की छूट न थी
सौ फ़ीसदी की लूट थी
बारह हज़ार के जूते
पाँच हज़ार की कमीज़
और वह कॉकेशियन हम उम्र
युवक जो वहाँ नहीं था
फरेब इसमें था कि यह दुनिया
मेरी हो सकती है
यह हर क़दम पर यहाँ लिखा था
और ऐसे कि इसपर भरोसा जगता था ।