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मौलिकता की ठेकेदारी / कृष्ण मुरारी पहरिया

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मौलिकता की ठेकेदारी
मौलिक हुए नहीं
राख बटोरी झोली भर ली
शोले छुए नहीं

कहीं किसी को उठते देखा
डंक मार आए
कहीं किसी को खिलते देखा
फन काढ़ आए
कभी दवा-दारू की बून्दें
बनकर चुए नहीं

बैठे गातें हैं प्रशस्तियाँ
इसकी या उसकी
घिसे - पिटे कुछ शब्द चुन लिए
छोंड़ रहें हैं मुस्की
ये अन्धे गडहे कविता के
मीठे कुएँ नहीं

मौलिकता की ठेकेदारी
मौलिक हुए नहीं