भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया / आलम खुर्शीद
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:50, 24 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलम खुर्शीद |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चराग़ तो जलता हुआ नज़र आया
दुखों ने राब्ते<ref> मेल-जोल, सम्बन्ध</ref> मज़बूत कर दिए अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया
शदीद<ref> कठिन, मुश्किल, कठोर, घोर</ref> प्यास ज़मीं पर गिराने वाली थी
कि एक चश्मा<ref>पानी का सोता</ref> उबलता हुआ नज़र आया
वो मेरे साथ भला कितनी दूर जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया
नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया
तवकआत<ref>उम्मीदें, आशायें</ref> ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया
शिकस्त दे के मुझे खुश तो था बहुत 'आलम'
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया
शब्दार्थ
<references/>