जीवन की परिभाषा आखिर
कौन समझ पाया है
उलझ गए प्रश्नों के फीते
जाके अलगनियों में
उत्तर के आँचल की डोरी
अटकी चिटखनियों में
अनसुलझे ही प्रश्न रह गए
सन्नाटा छाया है
तृष्णा गिरती ओ’ उठ जाती
दम्भ भरी मकड़ी-सी
प्राण छिटक कर गए हाथ से
लाश रही अकड़ी-सी
गम पीकर दु:ख सहकर टूटी
बेचारी काया है
यौवन की बगिया में जब तक
फूल विहँसते रहते
रस के लोभी भँवरे तब तक
मधु के बीच मचलते
पीड़ा का सहभागी बनकर
कब कोई आया है