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लौट गए घन बिन बरसे / रजनी मोरवाल

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बिन बरसे ही लौट गए घन
मन को नही छुआ।

प्यासी धरती ने अँखियों की
सूजन को सहलाया,
पेड़ों ने धानी चूनर को
यह कहकर बहलाया,

प्रियतम से बिछुड़ी सजनी संग
अक्सर यही हुआ।

रात कटी फिर तन्हाई के
आँगन अलख जगाते,
इंतज़ार के सही मायने
ख़ुद को ही समझाते,

चाँद, देह में अगन लगाकर
हँसता आज मुआ।

रिक्त हवाएँ तपती छत को
सन्देशा दे आई,
धीर धरो आएँगी फिर से
बूँदों की पहुँनाई,

खेतों में बैठा हलकू
करता है रोज़ दुआ।