भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब से तुम परदेश बसे / रजनी मोरवाल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:15, 5 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रजनी मोरवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
स्वप्न सभी वीरान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।
परख लिया बैरी दुनिया को
दुःख में संगी कब कोई है
बरसों से बिरहा की बदली
सुधियों के आँगन रोई है,
रिश्ते भी अनजान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।
भीगा मन रो-रोकर बाँधे
पोर-पोर टूटन की डोरी,
सावन को दिखलाई है मैंने
तन की सब सीमाएँ कोरी,
सम्वेदन सुनसान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।
साँस-साँस पर नाम लिखा है
धड़कन भी नीलाम हुई है,
सिहरन की बाँहें अलसाईं
देखो अब तो शाम हुई है,
दर्द स्वयं पहचान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।