स्वरलिपि / प्रेमरंजन अनिमेष
बोली है माँ
जिसे धीरे-धीरे
सब भूलते जा रहे
बूढ़ी उस माँ को
मैं उसका छोटा बेटा
बड़ा जो हो चला
सिखलाना चाहता
अपनी वर्णमाला
भाषा की वर्णमाला
सिखलाता लिखना
काँपती उँगलियाँ थाम कर उसकी
चलना सिखलाता
काग़ज़ पर
इस वार्धक्य में
जैसे उसने सिखलाया
बचपन में मुझे
पग धरना
आगे बढ़ना इस धरती पर
व्यंजन वह जानती
वही तो रही
पकाती परोसती
सबके लिए जीवन में
स्वर में अलबत्ता होती कठिनाई
कभी आवाज़ कहाँ उठाई
हक़ के लिए अपने
किसी इच्छा किसी स्वप्न को
स्वर कब दिया
ज़िद्दी मैं
फिर भी लगा
पीछे पड़ा
आगे खड़ा
कि सिखला कर ही मानना
स्वर के प्रकार
अकार इकार उकार
हर कुछ तो अब तक
किया स्वीकार
फिर क्या हरस्वीकार हरस्वीकार ( हर्स्व इकार ) ?
बोलती माँ आजिज आ
भीतर भरती दीर्घ ईकार...।