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एक यहाँ हम्मी नै छुच्छे छी गाँव मेँ / अमरेन्द्र

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एक यहाँ हम्मी नैं छुच्छे छी गाँव मेँ
बेड़ी बन्हैलोॅ छै सब्भे रोॅ पाँव मेँ।

सब्भे रोॅ चेहरा पर तपलोॅ छै धूप यहाँ
जैमेँ पिघललोॅ छै सोना रोॅ रूप यहाँ
तरबा रोॅ दुक्ख जबेॅ ठोर पर ठहरलोॅ छै
नीन कहाँ सेँ ऐतै पीपल रोॅ छाँव मेँ।

मुट्ठी भर आगिन लै आपनोॅ तरत्थी पर
आगिने के ढेर छेकै खाड़ोॅ छै जत्थी पर
ढलमल-ढल फोका रोॅ यै लेॅ नै चेत हुवै
बेमत छै झुट्ठे सब आपनोॅ निसाँव मेँ।

देवता के, देवी के, पित्तर के द्वारी पर
सब्भे तेॅ ऐलोॅ छै चललोॅ कटारी पर
गावौं मनौन, मतुर मुक्ति-निर्वाण कहाँ
गाँथी कोय गेलोॅ छै हड्डी यै गाँव मेँ।

-आज, पटना, 11 मई, 1999