भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ून-ख़राबा / एकराम अली

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:57, 8 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एकराम अली |अनुवादक=उत्पल बैनर्जी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हँसी ...
हँसी के बारे में
उन लोगों ने कुछ ख़ास नहीं सोचा था
वे केवल हँसते रहे थे,
लेकिन मृत्यु के बारे में
उन्होंने बहुत सोचा था
फिर भी मर गए थे वे

यह जो हँसते-हँसते मरना है
अचिन्ता से चिन्ता का विलुप्त हो जाना
अनमने भाव से ढूँढ़ना और पा जाना -- ये सब बातें
किसी को पता नहीं था
पिछली शाम
क्यों चाय की दुकान पर
बेंच के चारों ओर चक्कर काट रही थीं!
जिस प्रकार कोबरा साँप
अपनी बाँबी से दूर
घास के जंगल में टोह लेता रहता है!

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी