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बाज़ूबन्ध की कविता-5 / एकराम अली

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नीले घिसे हुए काँच में
अकस्मात दिखाई दी विनिद्र जड़ता
गंधक, आग, ख़ून
भीगे-भीगे डैनों के पंख
याद आती है वे सारी गगनविहारी माँस-बातें
सारे खाद्य-पदार्थ मूल रूप से
प्रकृति के रूपान्तरित शोक हैं

जल और प्रलय से
ध्वंस होती है पृथ्वी
नष्ट हो जाती है,
नष्ट हो जाते हैं कितनी ही फल, पत्ते और बीज
क्षय होते-होते सूख गए
कितने ही परिचित मेघ
लम्बे बरामदे में अकेली स्मृति की छाप
पुरानी कमीज़

ग़लत बहस के कारण
दोनों के डैने आज
दो अलग-अलग दिशाओं में उड़े हैं
फिर भी तुम आओ
हम आषाढ़ के पहले दिन
आपस में बातें करते हैं।

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी