भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेर का पेड़ / आरसी चौहान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 10 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आरसी चौहान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा बचपन
खरगोश के बाल की तरह
नहीं रहा मुलायम
न ही कछुवे की पीठ की तरह
कठोर ही

हाँ, मेरा बचपन
ज़रूर गुज़रा है
मुर्दहिया, भीटा और
मोती बाबा की बारी में
बीनते हुए महुआ, आम
और जामुन

दादी बताती थीं
इन बागीचों में
ठाढ़ दोपहरिया में
घूमते हैं भूत-प्रेत
भेष बदल-बदल
और पकड़ने पर
छोड़ते नहीं महिनों

कथा किंवदंतियों से गुज़रते
आखिर पहुँच ही जाते हम
खेत-खलिहान लाँघते बाग़ीचे
दादी की बातों को करते अनसुना

आज स्मृतियों के कैनवास पर
अचानक उभर आया है
एक बेर का पेड़
जिसके नीचे गुज़रा है
मेरे बचपन का कुछ अंश
स्कूल की छुट्टी के बाद
पेड़ के नीचे
टकटकी लगाए नेपते रहते
किसी बेर के गिरने की या
चलाते अन्धाधुन्ध ढेला, लबदा
कहीं का ढेला
कहीं का बेर
फिर लूटने का उपक्रम

यहाँ बेर मारने वाला नहीं
बल्कि लूटने वाला होता विजयी
कई बार तो होश ही नहीं रहता
कि सिर पर
कितने बेर गिरे
या किधर से आ लगे
ढेला या लबदा

आज कविता में ही
बता रहा हूँ कि मुझे एक बार
लगा था ढेला सिर पर टन्न-सा
और उग आया था गुमड़
या बन गया था ढेला-सा दूसरा

बेर के खट्टे-मीठे फल के आगे
सब फीका रहा भाई
यह बात आज तक
माँ-बाप को नहीं बताई
हाँ, वे इस कविता को
पढ़ने के बाद ही
जान पाएँगे कि बचपन में
लगा था बेर के चक्कर में
मुझे एक ढेला

खट्टा, चटपटा और
पता नहीं कैसा-कैसा
और अब यह कि
हमारे बच्चों को तो
ढेला लगने पर भी
नहीं मिलता बेर
जबसे फैला है बाज़ार
बहेलिए वाला कबूतरी जाल
ज़मीन से आसमान तक एकछत्र।