पहाड़ के नीचे / शैलेन्द्र चौहान
मालवा की काली माटी
सोंधी-सोंधी गंध
खेत में बागड़ काँटों की
चनों के हरे-हरे चमोने
बड़े भी रोक नहीं पाते
मन को
बालक तो बालक ही ठहरे
हिमालय आज पास है
कल था विंध्याचल
समय सांप्रदायिक
यदि बड़ी उर्वर ज़मीन थी वह
युगों तक
तब आज रेगिस्तान यह
रेंगता सा
कहाँ से आया
कुएँ का पानी
नालियों में बहता
पहुँचता खेत गेहूँ के
होली के रंग
पकी बालियों के संग
महक भुने दानों की
होरी आई, होरी आई, होरी आई रे
खचाखच भर गई चौपाल
मन का मृदंग बजता मद भरा
कबिरा ने छेड़ी फागुन में
बिरहा की तान
झूम उठा विहान
कितना विस्तृत मन का मान
भूल गए सब
मेहनत, मार और लगान
दूर हुआ शैतान
पर आज हर घर में
हाँडी के चावल
फुदक-फुदक फैले
मन भी रेगिस्तान हुआ
छवि खो गई जो
हो गई रात
स्याह काली
नीरव हो गया
वितान खग, मृग सब
निश्चेष्ट
दृग ढूंढ़ते वह
छवि खो गई जो
बढ़ रहा
अवसाद तम सा
साथ रजनी के
छोड़ तुमने दिया साथ
कुछ दूर चल के
रह गया खग
फड़फड़ाता पंख
नील अंबर में
भटकता चहुँ ओर
वह
लौटेगा धरा पर
होकर थकन से चूर
अनमना बैठा रहेगा
निर्जन भूखण्ड पर
अप्रभावित,अलक्ष