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मेरे मन की नदी / केदारनाथ अग्रवाल

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मेरे मन की नदी

सदी के बृहत सूर्य से चमक रही है

मेरे पौरुष का यह पानी दृढ़ पहाड़ से टकराता है

टूट-टूट जाता है फिर भी बूंद-बूंद से घहराता है

नृत्य-नाद के नटी तरंगों के छंदों की

जय का ज्वार भरे गाती है कलहंसों से ।