Last modified on 29 फ़रवरी 2008, at 11:19

तुम आ गई... / केदारनाथ अग्रवाल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:19, 29 फ़रवरी 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम आ गई हो मेरे अस्तित्व में

अपने अस्तित्व से निकल कर

भरपूर बढ़ रहे अपने व्यक्तित्व के साथ

जहाँ व्याप्त हूँ मैं

वहाँ व्याप्त होने के लिए

निरभ्र नीलिला के नीचे

पृथ्वी के साथ प्रदक्षिणा करने के लिए

त्रिकाल के साथ

जप और जाप करने के लिए

दृश्य और अदृश्य में

श्रव्य और अश्रव्य में

ज्ञेय और अज्ञेय होकर सर्वत्र विद्यमान रहने के लिए ।