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इज्ज़तदार / शरद कोकास

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एक इज़्ज़तदार
बदनामी की हवाओं में
टीन की छत सा काँपता है

हर डरावनी आवाज़
उसे अपना पीछा करती हुई महसूस होती है
हर दृष्टि घूरती हुई
चर्चाओं कहकहों मुस्कानों का सम्बन्ध
वह अपने आप से जोड़ता है
अपनत्व और उपहास के बोलों को
एक ही लय में सुनता है

समय की चाल में
असहाय होकर देखता है
डर और साहस के बीच
ख़ुद को खंडित होते हुए

कोशिश करता है भीड़ से बचने की
अपने लिये सुरक्षा के इंतज़ामात करता है
एक स्क्रिप्ट लगातार चलती है
उसके मस्तिष्क में
जहाँ वह अपने व्यक्तित्व के बचाव में
संवाद गढ़ता है

पपड़ी की तरह जमता है सम
उसकी पहचान पर
वह पैने नाखूनों से डरता है

उसे लगातार तलाश रहती है
पत्थर से विश्वास वाले दोस्तों की।

-1997