पुरुष मन और मछलियाँ / मुकेश कुमार सिन्हा
ओये! सुनो!
पता है, कल की रात हुआ क्या ?
था, सोया
तभी कान के पोरों पर
लिपिस्टिक का दाग बन गया!
उठा चिंहुक कर!!
इस्स! चारों ओर से,
था घिरा, तैर रही थी मछलियाँ!!
तैरते हुए सो रहा था मैं
ठंडी जलधारा में!
चारों और घूम रही थी
मछलियाँ!
हाँ, सिर्फ मछलियाँ
फैशनपरस्त मछलियाँ!!
सबने लगा रखी थी लिपिस्टिक
गलफड़े थे हलके रंगीन
कुछ ने पहने थे जींस
जो थे घिसे हुए, स्टाइल वाले जींस
तो कुछ थी, अधोवस्त्र में, ऐसे कहो स्विमिंग सूट में
कुछ थीं, बुर्के और साड़ियों में भी!!
समझ नहीं आ रहा था
मैं था, उनके उदरपूर्ति का साधन
या वो थीं
मेरे मनोरंजन का साथन!!
तैरती हुई मछलियाँ
कर रही थी कैट-वाक
कर रही थी अठखेलियाँ!!
पानी के अन्दर भी
खुल चुकी थी मेरी सपनीली आँखे
मेरा पुरुष मन
हो रहा था अचंभित और उत्तेजित!
मुझे दिखने लगी थी
मसालेदार तली हुई मछलियाँ
मेरी ही नजरें तलने लगी थी उनको!!
नजर के अलाव ने
आखिर पका ही दिया था उनको
अठखेलियाँ करती मछलियाँ
कब परिवर्तित हो कर दिखने लगी
प्लेट में सजी मछलियाँ
ये पता न चला...!!
और भोर हो गया!!