भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शरद ऋतु के दिन / रैनेर मरिया रिल्के

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:39, 10 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रैनेर मरिया रिल्के |अनुवादक=नीता...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे परमात्मा!
यह वह समय है
जब चरम पर है ताप

तो पड़ने दो धूप-घड़ी पर
अपनी परछाईं
और खुला छोड़ दो हवाओं को
मैदानों में

प्रण करो
आख़िरी फल को भी
परिपूर्ण कर देने का

प्रण करो
विपरीत दिनों को
दो और दिन देने का,
पक जाने के लिए
दबाब बनाओ फलों पर
शराब में मिठास लाने के लिए
एक आख़िरी कोशिश और करो

जिनके पास घर नही है
वे अब घर बनाएँगे क्या ही
जो एकाकी हैं अभी तक
आगे भी एकाकी रहेंगे वे,
वे जागते रहेंगे, पढ़ेंगे, लम्बे पत्र लिखेंगे
और घूमेंगे नीचे और ऊपर, बेचैनी से भरे,
जब तक कि उड़ती रहेंगी पत्तियां
 
अँग्रेज़ी से अनुवाद -- नीता पोरवाल