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बरखा का पद्य / सुकुमार राय

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काग़ज़ क़लम लिए बैठा हूँ सद्य
आषाढ़ में मुझे लिखना है बरखा का पद्य

क्या लिखूंँ क्या लिखूँ समझ ना पाऊँ रे
हताश बैठा हूँ और देखूँ बाहर रे

घनघटा सारा दिन नभ में बादल दुरन्त
गीली-गीली धरती चेहरा सबका चिन्तित

नही है काम घर के अन्दर कट गया सारा दिन
बच्चों के फुटबोल पर पानी पड़ गया रिमझिम

बाबुओं के चेहरे पर नही है वो स्फूर्ति
कन्धे पर छतरी हाथ में जूता किंकर्तव्यविमूढ़ मूर्ति

कही पर है घुटने तक पानी कही है घना कर्दम
फिसलने का डर है यहाँ लोग गिरे हरदम

मेढकों का महासभा आह्लाद से गदगद
रातभर गाना चले अतिशय बदखद

मूल बांग्ला से अनूदित