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बावला लड़ाका / सुकुमार राय

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वो जो अपना पगला जगाई रोज इधर आता है,
मन ही मन कुछ गुनता रहता खुद ही मुसकाता है।
चलते-चलते रुक जाता है ब्रेक लग गया जैसे,
फटाक् उछलकर दाएँ से बाएँ को कूदे कैसे!
बाँह चढ़ाकर, धोती कसकर गुस्सा खूब दिखाता,
"येल्ले" कहके हवा में ज्यों कोई तलवार चुभाता।
चीख़े " बैठे जाल डालकर? फँसता नहीं जगाई,
जर्मन पाँच और एक जगाई फिर भी देख लड़ाई।"
बड़े जोश में उछल-उछलकर नाचे अजगुत नाच,
कभी दो क़दम आगे जाए कभी दो क़दम पाछ।
छतरी की डण्डी से नाना दाँव-पेंच दिखलाता,
आँख मूँदकर चरखी-जैसा घूम-घूमकर आता।
कूद-फाँदकर हुआ पसीना और हुआ बेदम तो,
घम् से धरती पर गिर करके लम्बा हो रहता सो।
हाथ-पैर फैलाकर आँख पलटकर बस, चिल्लाए,
"गोला लगा तोप का सीधा औ' मर गया जगाए।"
यही बोलकर मिनट एक तक छटपट करते रहके,
ठण्डा पड़ता शव के माफ़िक सख़्त बदन को करके।
ज़रा देर में उठकर बैठे और खुजाए सिर को,
हाथ डालकर पाकेट में डायरी निकाले फिर वो।
उसमें लिक्खे, "सुनो जगाई ! भीषण हुई लड़ाई,
पाँच जने को मार के आख़िर ख़ुद भी मरा जगाई।"

शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित