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कविता की तलाश / बलबीर माधोपुरी

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कविता को आजकल

मैं यों तलाशता हूँ

जैसे रेगिस्तान में मनुष्य

तलाशता है कोई दरख़्त।


हमारे समय में

कविता कितनी हो गयी है संवेदनहीन

सचमुच ही दिशाहीन

सामाजिक सराकोरों से विलग

भूल भुला गयी है

अपनी गौरवमयी विरासत

तख़्त से जूझती

तख़्ते पर झूल गयी भावना

दर्दमंदों के लिए कामना।


यह कैसा समय है समकालीनों!

कविता ने सीख लिया है

नदी की तरह

किनारों के बीच बहना

किसी बैलगाड़ी की तरह

पहली लकीर पर चलना

अन्धेरी सुरंग अगर है मुख्यधारा

‘चेतन’ शब्दों का भला क्या है करना

‘अर्थों’ के पल्ले रह गया बस कसकना।


यह कैसी ‘होनी’ है

माँ तेरी कविता की

म्यान में कृपाण की तरह

जंग खा गया इसके अर्थों को

कम्प्यूटर-वायरस की तरह

‘काम-कीट’ खा गए शब्दों को


मैं फिर भी तलाशता हूँ

दुर्बल से, लाखे रंग के

दबे-कुचले आदमी के लिए कविता

मोहनजोदड़ों जैसी सभ्यता।


अंतरिक्ष यान की तरह

धरती से दूर न जा

मेरी प्यारी कविता

निरे मुहब्बत-हादसे

रख न सुरक्षित

शब्दों के वास्ते।


और तू, फिर यों लौट आ

जैसे रुंड-मुंड दरख़्तों पर

हरी-भरी टहनियाँ-पत्ते

घास पर ओस की बूंदें।


कविता को आजकल

मैं यों तलाशता हूँ

जैसे रेगिस्तान में मनुष्य

तलाशता है कोई दरख़्त।