द्रौपदी हियामँ हरि को जो सुमिरन कियो, अंतर जनैया जानि मानि लवो भावरे।
अछय वचन आओ अँबर अमूह लाओ, पूर लाजते लजाओ दुशासन बावरे॥
धरनि कहत जाके पौरुषको अंत नाहि, ताकी बाँह थाकी परी आय तन ताव रे।
गोहन तियाको मन-मोहन छोड़ायो आनि, लायो पतिव्रत यशवेलि जग साँवरे॥13॥