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लुढ़कता रहा हूँ मैं... / केदारनाथ अग्रवाल

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लुढ़कता रहा हूँ मैं अन्दर आकाश की सलवटों में

मार्ग का तल था एक स्वप्न के समीप

तो भी आसमान के चौड़े मुख से

मैंने खरोंच ली अपनी आँखें बाहर

देखने के लिए

वाष्प के मृदुल उरोजों के पार

और मैंने सुन लिए बिगुल बजते

भौतिक स्वरों के ।