Last modified on 21 मार्च 2008, at 09:20

किन्हीं रात्रियों मे. / इला कुमार

Sneha.kumar (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 09:20, 21 मार्च 2008 का अवतरण (new)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


किन्हीँ रात्रियों में

जब हवा का वेग किसी ख़ास पग्ध्वनि के बीच लरज़

उठता है

और मैं पोर्टिको के बगल वाली चोटी दिवार पर बैठी होती हूँ

मोटे खम्भे से पीठ टिकाए हुए

बगल की क्यारियों की बैंगनी और गुलाबी पंखारियां

फरफराती हैं

जर्बेरा का मद्धम श्वेत पुष्प अपना मुहं पृथ्वी की ओर थोड़ा झुका

लेता है

मानो शर्म से

उसी समय

मेरे अन्तर से जनमती हुई आकान्क्षा मुझे घेर लेती है

जानती हूँ तुम्हे ये कान सुन नहीं पायेंगे

इन आंखों की दिर्ष्टि से परे हो तुम

तुम

मेरी समस्त इन्द्रियों के महसूस से दूर हो जैसे


ठीक इसी समय

वह आकान्क्षा सांप की तरह फहर कर लहरा उठती है

तानकर खड़ी हो जाती है

घास की नर्म हरी परत के ऊपर से लेकर

वहाँ आद्रा स्वाती नक्षत्रों के बीच तक

तुम्हे देखने महसूस कर पाने की अदय्म आकान्क्षा


अपने समस्त सुंदर कोमल भावों के साथ

मैं

यहाँ

तुम्हारी प्रतीक्षा में

तुम्हारा आना महसूस करने की यह स्वप्रतिक्षा बेला

मुझे आमंत्रित करती है


तुम दृष्टि से द्रिश्तव्य नहीं

कानों से श्रोतव्य नहीं

त्वचा के स्पर्श के घेरे से दूर हो तुम

फिर भी

कैसे

किस भांति

तुम मेरे अन्दर हो

बाहर भी

इस अनाम गंध से पूरित वायु की भांति

तुम मुझे चारों ओर से घेर लेते हो


उसके बाद


बिना भाषा

बिना शब्दों के कहते हो

यह मैं हूँ

हाँ

यही हूँ मैं