भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ठिठुरै छै दिन-रात /रवीन्द्र चन्द्र घोष
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:41, 29 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्र चन्द्र घोष |अनुवादक= }} {{KKC...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
गाछी के फुनगी पर देखोॅ
किरण केन्होॅ पसरी-पसरी केॅ
इतरावै छै छितरावै छै
पत्ता पर ससरी-ससरी केॅ
गाछी केॅ ठंढा लगलोॅ छै
धूपोॅ में सेकी रहलोॅ छै
ठंढा एतना पड़ी रहलोॅ छै
देह-हाथ काँपी रहलोॅ छै।
जीवोॅ केॅ तेॅ चैभे करियोॅ
ओढ़ै खातिर कम्बल-लिहाफ
मतुर गरीबी एतना छै कि
नाँगटे ठिठुरै छै दिन-रात।