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मच्छड़-वन्दना / जगदीश पाठक 'मधुकर'

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जीवोॅ में प्रधान, बुद्धिमान, शक्तिमान, रक्तबीज खानदान
तोरा डरें काँपवै-जहान, जै हो मच्छड़ भगवान !
सब्भै जीवोॅ केॅ तोहें एक्के रं देखै छोॅ
सब्भै जग्घा में तोहें एक्के रं घूमै छोॅ
सर्वव्यापी आरो समदर्शी महान ! जै हो

राग-रागिनी के तों ज्ञाता बेजोड़ छोॅ
लोकगीत, गजलो सुनावै निन्द-तोड़ छोॅ
लहुवे टा श्रोता सें लै छोॅ तों दान ! जै हो....
गावी-गावी कीत्र्तन दिलवावै छोॅ ताली
आठो आúे ताली दै छौ पढ़ी-पढ़ी गाली
महिमा तोरोॅ लीला के, करेॅ बखान ! जै हो

भरमाय छोॅ हीरो रं दै-दै सीटी-नारा
हर दिन एक चुम्मा में गिनवावै छोॅ तारा
गिनथैं-गिनथैं तारा, होय जाय छै विहान ! जै हो

डाक्टर धुरंधर धन्वत्रिहो के बाप छोॅ
रोगी-निरोगी के इलाज करै छाथ छोॅ
सुइया चुभाय खून खीचै छोॅ दोनों में समान ! जै हो

वही जनम सें आगा या सूदखोर सेठ छोॅ
लहुवे टा चुसी-चुसी आपनोॅ भरै पेट छोॅ
जत्तेॅ छिटै फ्ल्टि डीडीटी ओत्तेॅ बढ़ेॅ प्राण । जै हो...
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मच्छड़ प्रभु ! देश में तोरे भरमार छै
शोषण-व्याभिचार के सजलोॅ बाजार छै
‘मधुकर’ छै मुक्ति लेली लोग परेशान ! जै हो