कहाँ चले गए वे भद्र पड़ोसी / शैलेन्द्र शान्त
गौरेयों ने बदल दिया
अपने अशियाने को
कई दिनों तक चहचह किया
पंख भी फड़फड़ाए थे
पुरज़ोर
फिर निकल पड़े
नए ठिकाने की तलाश में
न जाने किस ओर
मैने नीम के पेड़ से
बन्द खिड़की की ओर
टकटकी लगाए रहे कई रोज़
इसी तरह गुज़र गए कई भोर
तो मन मसोसते हुए
रोक दी आवाजाही
बेचारे कौवे ने तो ज़ख़्मी कर लिए
अपने चोंच
शीशे की खिड़की पर दस्तक देते-देते
नहीं खुली खिड़की
नहीं आई आवाज़
अन्दर से
चूहे राम भी रहे
परेशान कई दिनों तक
बड़ी मचाई उधम
मैदान साफ़ का साफ़
ख़ालीपन उनको भी ख़ूब खला
ऐसे में कैसे टिकते भला
छिपकलियों ने
खूब मचाई दौड़
इधर से उधर
कई-कई दिन
पर रात के अन्धेरे से हो गए परेशान
कीट-पतंगे भी न जाने कहाँ हो गए ग़ायब
घरवालों की तरह
चींटी, मच्छर, झींगुर...
सब के सब
हुए उदास
छोड़ दी आस
आख़िर में
कुत्ते-बिल्ली भी थे हत्चकित
कहाँ चले गए वे भद्र पड़ोसी।