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सौन्दर्य - 1 / प्रेमघन

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न होतो अनंग अनंग हुतासन,
कोपहु मैं दहतो न महान।
कोऊ कहतो यहि को नहिं मार,
न मारतो साँचहुँ शम्भु सुजान॥
घिरी घन प्रेम घटा रति की,
चित चाहि कै मूरखता मन आन।
अनूपम रूप मनोहर को तुव,
जौ न कहूँ करतो अभिमान॥