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रात होने तक / दिनेश जुगरान

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ये क्या वही आँखें हैं
जो थोड़ी देर पहले
मुझे सड़क के किनारे
घूर रहीं थीं

उन आँखों का रंग
शाम होने तक
मेरी दीवारों पर
लिपटे स्लेटी रंग
से मिलता हुआ लगता है

कहीं वे मेरी ही आँखें तो नहीं हैं
जो शाम होने तक
लगने लगती हैं
इतनी भयावह

तुमने सुबह - सुबह
जिस माथे को छूकर
किया था बिदा
घर लौटते वक्त
उस पर लिखी होती हैं
मौत की कई इबारतें
हम आदी हो गए हैं
अपने - अपने
भय के दायरे में
जीने के
रात होने तक
मेरी आवाज भी
उगलने लगती है
अँधेरा

हवाएँ घर की चार दीवारी के बाहर
चौकन्नी
शहर के चौकीदारों के हाथों में
एलान करता हुआ
एक भौपूं है
अँधेरे में छुपी हुई परछाइयों की तलाश में

मेरे पास तुम्हें तसल्ली देने के लिए
कोई शब्द नहीं
तुम सो जाओ बच्चों के साथ
मैं सो जाता हूँ दरवाजे के करीब