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इक ज़रा सी चाह में / आलोक यादव

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इक ज़रा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूँ मैं
आईने के सामने उस दिन नहीं आता हूँ मैं

रंजो-गम उससे छुपाता हूँ मैं अपने लाख पर
पढ़ ही लेता है वो चेहरा, फिर भी झुठलाता हूँ मैं

कर्ज क्या लाया मैं खुशियाँ जिंदगी से एक दिन
रोज करती है तकाजा और झुँझलाता हूँ मैं

हौसला तो देखिए मेरा, गजल की खोज में
अपने ही सीने में खंजर सा उतर जाता हूँ मैं

दे सजा-ए-मौत या फिर बख्श दे तू जिंदगी
कशमकश से यार तेरी सख्त घबराता हूँ मैं

मौन वो पढ़ता नहीं और शब्द भी सुनता नहीं
जो भी कहना चाहता हूँ कह नहीं पाता हूँ मैं

ख्वाब सच करने चला था गाँव से मैं शहर को
नींद भी खोकर यहाँ 'आलोक' पछताता हूँ मैं