भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुर्सी सरकारी / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:08, 9 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=धरती का आयतन / रम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दाँव-पेंच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के
काम नहीं करती हैं बिना जानकारी के।

मतलब से मतलब हल करना
कुर्सी दर कुर्सी सिखलाती
जो न समझ पाया तो उनकी
नज़रों में गँवार देहाती

सीख गए तो समझदार हो
हिस्से हो परदादारी के।
दाँव-पेंच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के।

होते हुए काम के पीछे
कितना कुछ होता है भाई
लेनी चाही खोज-ख़बर तो
बढ़ीं उलझने, आफ़त आई

फिर सख़्ती से कौन सुनेगा
बोल तुम्हारे लाचारी के
दाँव-पेंच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के।

तुम ईमानदार बन्दे हो
तो लम्बी लाइन में आओ
साहब के दफ़्तर के आगे
रोज़-रोज़ हाज़िरी बजाओ

अड़चन पर अड़चने डालना
कर्म महान होशियारी के।
दाँव-पेच ऐसे हैं कुर्सी सरकारी के।

बहुत हो गया अब न चलेगा
लोभी साँठ-गाँठ का पहिया
इन्हें बताना ही होगा अब
बड़ा आदमी, नहीं रूपइया

उठो ! दिखाने ही होंगे अब
तेवर तीख़ी चिनगारी के।
काम नहीं करते जो बिना जानकारी के।