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समय का पहिया (कविता) / गोरख पाण्डेय
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समय का पहिया चले रे साथी समय का पहिया चले फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी समय का पहिया चले रात और दिन पल पल छिन आगे बढ़ता जाय तोड़ पुराना नये सिरे से सब कुछ गढ़ता जाय पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी समय का पहिया चले उठा आदमी जब जंगल से अपना सीना ताने रफ़्तारों को मुट्ठी में कर पहिया लगा घुमाने मेहनत के हाथों से आज़ादी की सड़के ढले रे साथी समय का पहिया चले (अधूरी है)