भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेत मेॅ / सुधीर कुमार 'प्रोग्रामर'

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:21, 16 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर कुमार 'प्रोग्रामर' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जन्मलै खेत मेॅ अर मरै खेत मेॅ।
काम रौदा-बताषे करै खेत मेॅ।

खूब कैता, करेली लधै झींगली
जब किसानोॅ के लेहू जरै खेत मेॅ।

जों किसानों के खुरपी हँसै जोर से
ते पपीता, कदीमा फरै खेत मेॅ।

घास-भूसा सरंग से नै आबै कभी
सब जनाबर मगँन से चरै खेत मेॅ।

रात झरिया पड़ै कि अन्धरिया रहै
दीप जुगनू के रोजे बरै खेत मेॅ।