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रिश्तेदारी / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी

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नहीं, यह भी संभव नहीं होता
कि उनके शहर जाकर भी
जाया ही न जाय रिश्तेदारों के घर
अकसर कुछ एहसान लदे होते हैं
उनके बुजुर्गों के अपने बुजुर्गों पर
ऐसा कुछ न भी हो, तो
जरूरी होता है लोकाचार निभाना
किंतु अकसर खड़ी हो जाती है समस्या
कि पत्नी की कुशलक्षेम, बच्चों की
सुचारू पढ़ाई का विवरण दे देने
तथा ’और क्या हाल-चाल हैं‘ का कई-कई बार
उत्तर दे देने के बाद,
कैसे जारी रखा जाय संवाद
अकसर बोझिल हो जाते हैं
चाय आने के बीच के क्षण,
और अकसर देर लगती है चाय आने में
क्योंकि उधर से भी रिश्तेदारी निभाने के प्रयास
प्रकट होते हैं चाय के साथ की सामग्री बनकर
चाय के बाद बनती है कुछ राहत की स्थिति
कि अब कुछ देर बाद
माँगी जा सकती है आज्ञा
और खाना खाकर जाने की मनुहार पर
कुछ बहाने बनाकर
उठा जा सकता है कुछ औपचारिक संबोधनों
तथा फिर मिलने-जुलने
या चिट्ठी लिखने के वादों के साथ!