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कृतज्ञता / दिविक रमेश

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'हवा

कृतज्ञ हूँ मैं!'


मैंने हवा से कहा।


'क्या'

ऎसे चौंकी हवा

जैसे पहली बार सुना हो यह शब्द उसने।


पास ही पसरे हुए आकाश से कहा


'मैं कृतज्ञ हूँ आकाश!'


'भला क्यों'

आकाश ने आँखों को समुद्र-सा फाड़कर पूछा।


'बादल

तुम तो लो इस दास की कृतज्ञता

और तुम भी

असंख्य तारो, चांद, सूरज, दिशाओ!'


सभी/ कुछ यूँ ताकने लगे जैसे

कोई अनहोनी घटना/ घटी हो उनके लोक में।


तो क्या सचमुच

इतना कुछ देकर भी

तुम आदमी को/ कृतज्ञ नहीं बनाते


चौधरी रामप्रसाद जी की तरह

कृतज्ञ आदमी को

चरणों पर नहीं झुकाते।