Last modified on 29 अप्रैल 2008, at 19:50

सागर के किनारे / दिविक रमेश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:50, 29 अप्रैल 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश |संग्रह=खुली आँखों में आकाश / दिविक रमेश }} स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सागर

परत दर परत

सिमटता हुआ

किनारे

टॆं बोले आदमी-सा

उगल देता है झाग

चूम लेता है क़दम।


किनारे खड़ा

अभी ही तो

सोच रहा था

कि लहरों के बल

कितना गरज लेता है

सागर!


और मैं

कितना ख़ामोश


आँखों में दृश्य बनती

वे नावें

कितनी दूर निकल गई हैं

असंख्य लहरों में।

लौटते हुए पानी के साथ


अब

तलवों की ज़मीन भी

जवाब दे रही है।

ख़िसकती हुई ज़मीन पर
खड़े रह पाने की
जद्दोजहद
ज़ारी है।


लगता है

जब तक यहाँ

किनारे रहूंगा

कोई न कोई क्रम

बराबर

बाँधे

रखेगा।