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सागर के किनारे / दिविक रमेश

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सागर

परत दर परत

सिमटता हुआ

किनारे

टॆं बोले आदमी-सा

उगल देता है झाग

चूम लेता है क़दम।


किनारे खड़ा

अभी ही तो

सोच रहा था

कि लहरों के बल

कितना गरज लेता है

सागर!


और मैं

कितना ख़ामोश


आँखों में दृश्य बनती

वे नावें

कितनी दूर निकल गई हैं

असंख्य लहरों में।

लौटते हुए पानी के साथ


अब

तलवों की ज़मीन भी

जवाब दे रही है।

ख़िसकती हुई ज़मीन पर
खड़े रह पाने की
जद्दोजहद
ज़ारी है।


लगता है

जब तक यहाँ

किनारे रहूंगा

कोई न कोई क्रम

बराबर

बाँधे

रखेगा।