भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झन मारो गुलेल / हरि ठाकुर
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:35, 1 नवम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरि ठाकुर |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} {{KKCatChhattisgarhiRac...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
झन मारो गुलेल
झन मारो गुलेल
बाली उमर लरकईया
बिछिया बोले झुमका डोले
अंग अंग मुस्काए
हवा मा अचरा उड़-उड़ जाए
मोर जी घबराए
बाजत है बैरी पैजनियां
झन मारो गुलेल
झन मारो गुलेल
बाली उमर लरकईया
नार नवेली मैं अलबेली
रतनारे हैं नैन
हो मोरे मधु छलकत है बैन
गदराए है बैन
पीछे पड़े मोरे सईया
झन मारो गुलेल
झन मारो गुलेल
बाली उमर लरकईया