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खण्ड-5 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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‘‘मन को बांधू ! क्या कहते हो, मन मेरा जो स्वामी
मुझको क्या योगी समझे हो, केवली या निष्कामी
ऐसा होता, तो अब भी क्या मन में ऐसा होता
रुपसा की माटी पर सोने को अब भी मन रोता
खुला हुआ घर, खुला गगन था, खुली हवाएँ शीतल
हर घर अपना-सा लगता था, मन हिरनौटा चीतल
कैसा था बंधन रिश्ते का सब लगते अपने-से
मिट्टी के उस शीश महल में, दुख सारे सपने-से
मन करता है शहर छोड़कर गाँव लौट फिर जाऊँ
चानन की रेतों पर बिरजाभार गीत दोहराऊँ
पोखर के ऊँचे टीले पर जाकर हाँक लगाऊँ
मन करता है शहर छोड़ कर गाँव लौट फिर जाऊँ


‘‘फिर तुम बोलोगे मुझसे-मैं डरा हुआ हूँ वय से
इसीलिए बचपन की बातें करता हूँ अब भय से
ताकि बुढ़ापे को आँखों से ओझल किए चलूँ मैं
भले उम्र की बर्फ गले ही, लेकिन नहीं गलूँ मैं
खोल पीठ की आखों को बचपन की हँसी निरखना
जो प्रत्यक्ष है, खुली दृष्टि से दूर-दूर ही रखना
सच से भाग निकलने का है रस्ता खूब अनोखा
दे सकते हो औरों को तुम, मुझे नहीं पर धोखा


‘‘स्वर्ण शैल पर स्वर्ण लताएँ स्वर्णातप, स्वर्णाभा
क्या होगा अभिधा पर रखकर वक्रोति की शोभा
जो कुछ दिखता सृष्टि जगत में, मिलना और बिछुड़ना
यह तो है बस उसी प्रकृति का हर पल आगे बढ़ना
जो सच है, स्वीकार करो, मत भागो, जो दिखता है
मनुज यहाँ करने को केवल, भाग्य कोई लिखता है ।’’


‘‘भाग्य कोई जो लिखता है, तो मेरे वश में क्या है
वाण किसी का चलता है । क्या जीवन खाली ज्या है
तो क्या मैं हूँ, मेरा क्या अस्तित्व यहाँ पर, बोलो
क्या रहस्य है, क्यों इतना निरुपाय ? भेद को खोलो
अनुमानों पर टिके ज्ञान को मुझे नहीं बतलाओ
कहा तुम्हीं ने, जो प्रत्यक्ष है, उसको नहीं लजाओ
तो, प्रत्यक्ष से कहाँ दूर हूँ जो कहता मन; कहता
मुझ पर मेरा ही तो मन है बरबस छाया रहता
जो कुछ तुमको लगे अटपटा वह भी इसकी सृष्टि
पूनम की रजनी को कहता चाँदी-मणि की वृष्टि
जो विचित्रा है दृश्य जगत में मन की वह माया है
इसीलिए तो सच भी लगता बरबस ही छाया है
मन के जलकण पर जैसा इस जग की पड़ती छाया
उसी रूप में जग भी आता; रूपारूप की माया
चंचल जल पर छवि कब किसकी, एक रूप में ठहरे
भ्रम चुपके से आ जाता है, पाँव दबाए गहरे
फिर तो सच का साथ छूटता, मिथ्या आगे-आगे
और आदमी, क्या क्या सोचे उसके पीछे भागे
क्षमा चाहता, मैं तुम पर कुछ, दोष नहीं मढ़ता हूँ
लेकिन सच है मूर्ति भयावह कभी नहीं गढ़ता हूँ
कुछ ऐसा संयोग हुआ जब भ्रम ने मुझको घेरा
अन्धकार में डूब गया वह उठता हुआ सबेरा
लेकिन जल जब शांत हुआ,तो सब कुछ शांत दिखा था
खुली आँख से देखा जो कुछ, सोचा, वही लिखा था


‘‘लेकिन तुमने कहा ठीक ही सच से घबड़ाता हूँ
इसीलिए बचपन के घर में लौट-लौट जाता हूँ
लेकिन वहाँ कहाँ अब कुछ है डीह तलक ना शेष
औघड़ की ज्यों खुली जटाओं के बिखरे-से केश
दो दशकों से ज्यादा बीता जब मैं गाँव गया था
जो देखा था, कहीं नहीं था, सब कुछ नया-नया था
बरगद का वह शैल नहीं था, जामुन का घन-देश
गाँव मिला मुझसे, लेकिन घर कापालिक का भेष
कच्ची मिट्टी के घर कम थे, पकी ईंट के ज्यादा
कितने-कितने रंग मिले, जो मिला नहीं, तो सादा
अमराई में झूल रहे थे, पेड़ों के कंकाल
झुका-झुका-सा मुझे लगा था मेरे गाँव का भाल
गाँव वही था, नदी वही थी, साथी नहीं मिले थे
पूछा था मैंने लोगों से, सबके ओठ सिले थे
सबको शंका यही एक थी, पता नहीं मैं कौन
इसीलिए कुछ कह कर भी वे सभी रहे थे मौन
घर का मिला घरौंदा टूटा, जा मन का भी टूटा
रौंद गया था साँढ़ फसल के संग-संग खड़ा बिजूका
फिर भी क्यों लगता है मेरा रुपसा है रुपसा ही
उसी गाँव को जाते लगते, जो मिलते हैं राही
शीतल हवा कभी जो छूकर लौट कहीं है जाती
और अचानक आँखों के आगे बदली लहराती
कानों में ज्यों ‘हुआ’ कहा हो, बिजली कड़काए
भींगी मिट्टी की खुशबू से तन-मन भरमाए
पके हुए जामुन-सा बादल, मेरे घर पर आए
छत्ते से ज्यों बूंद शहद के हौले से बरसाए
तब लगता है, मेरे गाँव से पाहुन बन हैं आए
अब ऐसे बौराए मन को, कौन भला समझाए
जो अतीत है मरा हुआ है, सोचो बस आगे का
आगे का भी क्या भविष्य है, जो है तो जागे का


‘‘इसीलिए मैं वत्र्तमान की उपासना में रत हूँ
जब भी पाया अपने को, इसके आगे ही नत हूँ
स्मृति-प्रज्ञा को अपनी इस मति से जोड़ चला हूँ
कभी-कभी मुझको भी लगता, मैं तो अबुझ कला हूँ
वत्र्तमान की बातें करता पीछे रुक जाता हूँ
फिर भविष्य के चरणों पर ही पल में झुक जाता हूँ
अपने सारे किए कर्म का जोड़-हिसाब लगाता
फिर मेरा यह लोक कहाँ पर कुछ भी है रह जाता
कितने-कितने लोक सृजित होते रहते हैं मन पर
ज्यों नक्षत्रा ही शोभ रहे हों, ऊपर खुले गगन पर
मति कहती है, कहीं नहीं कुछ, जो कुछ है, छलना है
कहीं नहीं सुख, दुख ही केवल, इस पर ही चलना है
कुछ उपाय से भले करो तुम तापों से परहेज
सिद्ध नहीं होता कि जग यह नहीं सूली की सेज
सच है, दुख से जो उपजा है सुख यह, वह भी दुख
नाश प्रलय का ला देता है गंगा का गोमुख
ऐसे में इच्छा होती है घेर मुझे ले विस्मृत
देखूं, घट से रिसता जाता प्राणों का अमृत
परमाणु सब छूट रहे हैं, अलग-अलग हो, चंचल
काया के भीतर सूखा है सहस्त्रार का शतदल
अंधकार है निगल गया किरणों का पुंज, किरण को
निगल गया है पंचभूत को, मन को, मन के प्रण को
कहीं नहीं गति, ज्ञान नहीं है, शून्याकार चराचर
शेष बचा है अगर शुन्य में, बीज रूप में अक्षर
अक्षर में अंकित है मेरे पाप-पुण्य का लेखा
जिसमें मेरा हनन किया है, वह भी अंकित देखा
जिसको मीत-सखा बंधु कह अपने गले लगाया
मत पूछो मुझसे ही यह तुम, क्या-क्या उससे पाया
जिसके लिए हृदय को खोला, वही भृगु बन बैठा
जिसका जो था रत्न, लिया; कच्छप है अब तक ऐंठा
कहते हैं, अक्षर का साधक अमर हुआ करता है
उसके लिए विविध लोकों में अमिय चुआ करता है
मुझको तो बस मिला हलाहल, विषपायी हूँ सच है
अमृतज्ञाता, फिर भी अमृत से वंचित यह कच है
लांक्षन लगे: किया हित मैने: इसमें ही सुख मिलता
देखा मणि की माला से मणियों को मोर निगलता
समझौता कर लिया दुखों से, दुख को मीत बना कर
अपनी हार-पराजय को हर क्षण ही जीत बना कर
भले तड़ित हो श्याम घटा की, पूनम मान लिया
चैसठ पार किया जीवन का; जीवन जान लिया

ऐसे में क्या करूँ शिकायत कुछ भी मैं जीवन से
जो कुछ संचित किया यहाँ, अब मोह नहीं उस धन से
जहाँ-तहाँ ये पड़ी किताबें, कविताएँ-भविताएँ
कब तक इनको बचा-बचाकर मन पर ढोता जाएँ
नहीं हास्य ये, नहीं चुटकुले, सभी जगह बिक जाए
कौन कबीरा के दोहों का मिल कर मोल लगाए
खुले छन्द पर लहराती है पछिया; पुरबा रोए
तुलसी चैरा पर छाया है, देव कहीं पर सोए
जब कवित्त के पाँव बंधे हो, चैपाई भी चुप-चुप
ऐसे में किससे क्या बोले दुर्मिल और अनुष्टुप
क्या कहते हो यश की खातिर डीह छोड़ भटकूं मैं
पुरस्कार के पीछे पड़ कर भाई को पटकू मैं
अपनी माटी ही क्या कम है पुर को गोपुर समझूं
गढ़ में छिपे हुए असुरों को बोलो क्यों सुर समझूं
नमस्कार करने दो अपने डीह को, भारत माँ को
मुझको कोई लोभ दिखा कर पुर की ओर न हाँको
मैंने कहा न, यश की खातिर हाँफ नहीं सकता मैं
खुले शिशिर के बीच खड़ा हो काँप नहीं सकता मैं
लिखता हूँ, तो इसीलिए कि तुलसी कथा रुके ना
किसी सिकन्दर-लोदी आगे कबिरा कभी झुके ना
लिखता हूँ, तो इसीलिए कि नर का मान बढ़ाऊँ
ऋषियों-संतों के वचनों को गली-गली में गाऊँ
योगी ऋषि अरविन्द, विवेकानन्द हृदय में उतरे
गाँधी की वाणी में मिल कर मेरी वाणी विहरे
इस कोशिश में मिला मुझे जो, सोचा वही बहुत है
सबसे विरत हुआ मेरा मन, लेकिन इसमें रत है ।’’