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खण्ड-9 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

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‘‘इस काया के जोड़-जोड़ में टूट रहा है सब कुछ
लोहे का यह दण्ड अचानक क्यों लगता है लुरपुच
दौड़ रहा है दर्द देह में नस-नस टूट रही है
लगता है मेरी काया अब मुझसे छूट रही है
कभी-कभी सर के कोने में दैत्य पीर का प्रकटे
चीतल पर ज्यों भूखा चीता चक्रवात-सा झपटे
तब जबड़े में फसा हुआ मैं चीख कहाँ हूँ पाता
सारे बोधों से विहीन हो जीते जी मर जाता
महिनों-महिनों झेला है चकराना अपने सर का
एक निमिष में देखा है मैंने दुख जीवन भर का
अब भी घेर मुझे वह लेता किसी समय भी आ कर
घूम रहा जो चाक, उसी पर गिरता हूँ लहरा कर
न जाने कितना कुछ मुझसे; शेष नहीं हो पाता
क्षिति, जल, पावक, गगन, मरुत का भेष नहीं हो पाता
सारे सपनों को निचोड़कर बंद नेत्रा कर लेता
मेरे लिए कहाँ रह जाता कलियुग, द्वापर, त्रोता
न जीने की इच्छा कोई, न मरने की चाहत
बंद दृगों में होता रहता मन कितना तो आहत
बाँहों की यह पीर, पाँव का दर्द, शूल यह दिल का
रक्तकमल का रूप दिखाता, होते नीलकमल का
तब सारे संकल्प, चिता से उठता हुआ धुआँ हो
गहन निशा में देश-काल तक औंधा हुआ कुआँ हो
ऐसे में मन का संबल मुझको झकझोर जगाए
गहन निशा से खींच दिवस के आँगन में ले आए
फिर तो लगता, मैं प्रकाश हूँ, अग्निपुंज हूँ, रवि हूँ
मृत्यु नहीं, जीवन-जगती-गति, और क्रिया का कवि हूँ
जगता है मुझमें असीम-सा अद्भुत, दिव्य, मनोहर
सृजन और विध्वंश-लोक में मुझको मिला धरोहर
भर देता है कौन तेज यह मुझमें वेग प्रबलतम
बज उठते हैं बियाबान में दूर-दूर तक छमछम।

मन तरंग है, अग्नि दीप्त यह कहाँ नहीं गति इसकी
किसी और के मन से मिलता बहुत अबुझ मति इसकी
सात समन्दर पार रूप जो, मन-तरंग ले आए
सपने में जो बस संभव है वह भी कर दिखलाए
ऐसा मोह खड़ा करता है, सब प्रत्यक्ष छिप जाता
एक रूप अनदेखा-देखा सम्मुख में दिखलाता
मैं भी बंदी उसी शक्ति का, जिसमें जगत बंधा है
कहना तो कितना कुछ चाहूँ, लेकिन गला रुंधा है।

ऐसे ही युग में जीने को अब तो विवश हुआ हूँ
किसी दूर की शोभा में पिंजरे का बुद्ध सुआ हूँ
पिंजरे में सोना-उड़ना है, पंखों को फैलाना,
उतने पर निर्भर होना है, जितना-सा है दाना
छूट गया आकाश-पवन वह, मिल कर शोर मचाना
अब तो इस पिंजरे में रहते एक दिन है मर जाना
आयेगा कोई न संगी, कुछ भी पीर जताने
ऐसा काल, जहाँ अपने ही अपना ना पहचाने
रिश्ते-नाते अलग-अलग हैं, चढ़े हुए सूली पर
कैसा चित्रा बनेगा सोचो, रक्त लगा तूली पर
कंचन की ही चित्रापटी पर कंचन की रेखाएँ
गोबर, हल्दी और पलाश के रंग कहाँ से लाएँ
ऐसा टूटा है अपनापन; सबको सब पर शक है
मूल्यों के माथे को देखा, उड़ा हुआ रंग, फक है
कौन यहाँ अब सुनने को कुछ, मेरा भला सुनेगा
अगर सुना, तो गाली देते कुछ भी नहीं थकेगा
अब किसको फुर्सत है, मेरे संग में बैठे, रोए
यह उत्तरयुग है, जिसमें सब अपनी सूली ढोए
इसीलिए तो दुख भी इतना फैला और नुकीला
कंचनगढ़ का शेष नहीं दिखता है अब तो टीला
रौंद गया है लातों से वह दानव रातो-रात
जिधर घुमाओ दृष्टि; विखंडन की चलती बारात
क्या बोलूँ मेरा जीवनघर कैसा उजड़ गया है
देख रहा हूँ, बरगद ही जब जड़ से उखड़ गया है।

‘‘तुम कहते हो ब्रह्म खोजने जो जीवों में रमता
जिसमें नाश-सृजन की सब कुछ सोई रहती क्षमता
उसे जिसे कि देव भी शायद पकड़ कभी हो पाता
इन्द्रियों से बाहर ही रहकर जोड़े रहता नाता
तुम्हीं कहो कि क्या मेरे वश की बात कभी यह होगी
मैं तो रस का, गंध-राग का और शब्द का भोगी
जहाँ नहीं ये, वहाँ काल कंकाल नरक का रचता
तुम्हीं कहो जो बचूं इन्ही से, मेरे पास क्या बचता
जो जीवन के सुख को मारे, क्या वह वधिक नहीं है
दुख को ही मैं सार समझ लूँ, तो मुझको ही धिक है
जिसको ब्रह्म कहा करते हो, उसकी यह खोज
बरसा करते शब्द-गंध-रस मुझ पर अविरल रोज
में तो खोज रहा हूँ उनको जो हन्ता हैं छवि के
अंधकार की पूजा करते दुश्मन हैं जो रवि के
ढूढ़ रहा हूँ कहाँ सत्य है, सुन्दर है, शिव-छाया
जो मुझको सच से भटकाए, दूर रहे वह माया
जो प्रत्यक्ष से दूर, मैं ढूढूं, यह तो बहुत कठिन है
तुम कहते हो निशा भवानी, देख रहा हूँ, दिन है

चाहो तो यह भी कह सकते मेरी दृष्टि का भ्रम है
यह उसकी है सोच कि जिसका फूटा भाग्य करम है
सच कहते हो दृष्टालोक से भाग्यलोक तक मेरा
घिरा हुआ है क्रूर काल से; कापालिक का फेरा।’’