Last modified on 25 दिसम्बर 2016, at 15:30

खण्ड-2 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:30, 25 दिसम्बर 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

‘‘पर अमरेन्दर तुमको तो कल का भी ज्ञान नहीं है
कहीं भार भारी अक्षर का, हल्का और कहीं है
टूट पड़ेंगे भावक तुम पर, भौरों को देखा है
चरण संभाले रखना अपने, यह सीमा-रेखा है
तुम्हें पता क्या, तत्वदर्शी जो भावुक: ऐसे कम
जो, अरोचकी जमे हुए हैं; काव्य विधा पर यम
वादों ने है बना दिया मत्सरी यहाँ भावक को
ज्यों शृगाल टकटकी लगाए घूरे शश-शावक को
अगर हुआ, तो बिन मंथन के होगी खूब प्रशंसा
पुरस्कार भी पा जाओगे, पा कर वह अनुशंसा
तुमने भी तो यही किया है, अमरेन्दर; हो भावक
कहीं किसी पर बर्फ बने हो, कहीं किसी पर पावक
यह भी तुमसे नहीं हुआ कि किसी वाद से बंध लूँ
चर्चा में रह यश को पाऊँ; जहाँ सधे न, सध लूँ
तुमने सोचा, अलग-थलग ही रहूँ, भीड़ से बचकर
दिखलाऊँगा फिर कबीर और दादू का पथ सच कर
हँसी तुम्हारी मति पर आती, बुद्धू हो और भोले
कभी नहीं कवि बन सकते हो, चाहे जितना रो ले
उस पर है यह ठाठ तुम्हारा ठेठी में लिखते हो
सभ्य जनों के बीच गँवारु-सा, भेस दिखते हो
आदिम युग से ऊपर उठने की कोशिश क्या करते
अंधकार में और भी नीचे देखा तुम्हें उतरते
ठेठी का उद्धार करोगे, क्या अपनी बलि दे कर
व्यंग्य और उपहास के सिवा क्या जाओगे ले कर
नये समर में नया शस्त्रा ही हितकर होता, सच है
देख तुम्हारा ढंग समर का, जो भी दिखा, अकच है

अब तक तुमने काव्य रचे जो, कितने दोष गिनाऊँ
पांचाली, वैदर्भी, गौड़ी, कभी खोज न पाऊँ
रस का ही बस दोष नहीं है, अर्थदोष भी पाया
पुनरुक्ति, ग्रामत्व, पदों पर वाक्यदोष की छाया
कविता तो है श्लेष, कांति, माधुर्य गुणों की माला
समता, प्रसाद, उदात्त सुधा का मधुरिम मधुमय प्याला
चाहे कुछ भी लिखो, रूप कविता का नहीं बिगाड़ो
जो सुहाग की पाट पटोरी, उसको यूं मत फाड़ो
लेकिन मैं यह जान रहा हूँ, तुम न कभी मानोगे
छाया छोड़े, कहीं धूप में, रेतों पर दौड़ोगे
कहा; मुझे जो कुछ कहना था, अब आगे तुम जानो
कोई कितना राह दिखाए, खुद उसको पहचानो
वैसे अभी तुम्हारे मन में जो उठता; परिचित हूँ
दशा तुम्हारी देख-देख कर भीतर से चिन्तित हूँ
जो कुछ कहना है तुमको, वह कह डालो चुपके से
ऐसी कौन व्यथा है तुम पर, लगते थके-थके से
क्या वसन्त में देख लिया है क्रुद्ध शिशिर का सपना
क्यों विराग का रूप लिए यह घूम रहे हो अपना?"