Last modified on 2 जनवरी 2017, at 12:55

इन बुज़़ु़र्गों की ज़रूरत अब कहीं पड़ती नहीं / डी. एम. मिश्र

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:55, 2 जनवरी 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इन बुज़़ु़र्गों की ज़रूरत अब कहीं पड़ती नहीं
अब दिये से काम भर की रोशनी मिलती नहीं।

आपको अरसा हुआ है गाँव को छोड़े हुए
गाँव में दातून भी ढूँढो कहीं मिलती नहीं।

ज़ोर है विज्ञान का बच्चे परखनलियों में हों
थी कहावत, पत्थरों पर दूब अब जमती नहीं।

टूटता है कुछ पुराना,पर नया बनता है क्या
जेा नया बनता है उसमें ज़िंदगी मिलती नही।

इक सड़ी मछली से हो जाता था तब तालाब दूषित
अब सड़े तालाब में मछली कहीं दिखती नहीं।