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ज़िद्दी सुबह / उत्पल बैनर्जी / प्रोमिता भौमिक
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एक सुबह
नेस्तनाबूत किए जा रही है मुझे ...
शहर की राहों पर भाग रहे हैं
पुराने बक्सों में बन्द पड़े दिन,
राजपथ लेटा हुआ है मेरे बिस्तर पर
ख़ुद को अन्धेरा मानते-मानते
हथेली पर मल रही हूँ अनिच्छा
उपेक्षा मली मिट्टी की देह;
तुम ढूँढ़ रहे हो मुझे —
हालाँकि मेरी तुम्हें चाहने की इच्छा
क़तई नहीं हो रही
मुझे लगातार सताए जा रही है यह सुबह
यह सुबह लौट जाने का
नाम ही नहीं ले रही !
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी