Last modified on 27 जनवरी 2017, at 02:12

क़ैदी के पत्र - 3 / नाज़िम हिक़मत

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:12, 27 जनवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नाज़िम हिक़मत |अनुवादक=चन्द्रबल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

झुका हुआ पृथ्वी को निहारता हूँ
शाखों को, जिन पर नीले बौर जगमगा रहे हैं, निहारता हूँ,
तुम वासन्ती पृथ्वी, प्रिये,
तुमको निहारता हूँ।

गाँव में रात्रि समय मैंने आग जला दी, उसे छुआ,
तारों के नीचे जलती हुई आग-सी तुम हो,
और मैं तुम्हारा परस करता, प्रिये,
तुमको निहारता हूँ।

मानवों के बीच हूँ, मानव को मैं प्यार करता हूँ
कर्म से मुझे प्रेम
मुझे विचारों से प्रेम है
मेरे संघर्ष बीच तुम मानव रूप धरे बैठीं, प्रिये,
तुम्हें प्यार करता हूँ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : चन्द्रबली सिंह