भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्राथमिक शिक्षक-5 / प्रभात

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:19, 4 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभात |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

5.
और भई गंगाराम सुणा क्या खबर
कबिता सुणाएगा ?
चल सुणा
देख यार हमें तो ये तेरी कबिता हो या बबिता
समझ में आती नहीं है क्या नाम से
लेकिन चल तू सुणा

सुणाणे लगा साब गंगाराम-

‘संस्कृति तो थी भली
और वह इंसानी मानवीयता को
यहां तक खींच लाई थी
लेकिन मानव की यह अमोल विरासत
अब छिन्न-भिन्न हो रही थी

मूल्य तो थे भले
और वे इंसानी उदात्तता को
यहां तक खींच लाए थे
लेकिन अब उनमें गहरी गिरावट आ गई थी

बदलाव का यह ऐसा दौर था
जिसने हृदयों के समीकरण बिगाड़ दिए थे
वे मशीन की तरह धड़कने लगे थे
करुणा के आगार इंसानी हृदय
खण्डहरों में तब्दील हो गए थे
व्यक्तिगत जिन्दगियां खासी उजाड़
और जीवन विहीन थी

जीवन के होने के गान के नारकीय शोर में
जीवन के अभाव का अजब समारोह
धरती पर चल रहा था
एक ओर नगरों में शॉपिंग माल बढ़ रहे थे
दूसरी ओर कैंसर की तरह बढ़ रही थीं
झुग्गी झोंपड़ियां

इन झोंपड़पट्टियों में
भारी तादाद में रहते थे वे परिवार
जिन्हें कंगाल बनाने में इस शताब्दी ने
सारी ताकत झौंक दी थी

न्यूनतम मानवीय संवेदनाओं के साथ रहते थे
वे परिवार इन झोंपड़पट्यिों में
छोटे-छोटे चार-चार पांच-पांच साल के नग्न बच्चे
सुबह होते ही शहर में बिखर जाते थे कटोरा लिए
देर शाम थके हारे काम से लौटते थे अपने डेरों में
जहां उन्हें उनके जर्जर पिता मिलते थे
और भी जर्जर उनकी मांओं के बाल खींचकर
धरती पर दे मारते हुए
जहां उन्हें बड़ी बहनें मिलती थी
झुग्गी के अंधकार में जमीन खोदकर बनाए
पत्थर के चूल्हे पर खाद्य बनी बैठी हुई
जहां उन्हें राजनेताओं सरीखे सफेदपोश एनजीओ वाले मिलते थे
उन्हें खा जाने के लिए आए हुए

झुग्गी झोंपड़ियों और रेल की पटरियों के
बीच से जाते कच्चे रास्ते पर
यह तेरह चौदह साल की बच्ची
अपने घुटनों में सिर फंसाए बैठी है
इसके आठ कदम दूर
बीस-बाइस की उम्र के दो भारतीय नौजवान
बैठे हैं गिद्ध की तरह दृष्टि जमाए
लड़की धरती को कागज बना
तिनके से चित्र उकेर रही है धूल में
चित्र में उसने ढेरों-ढेर झुग्गी झोंपडियों में
हवा में हरहराते अपने झिलंगे से घर को बनाया है
घर के आगे बनाए हैं पेड़ जिनमें छाया है

और अब वह जार-जार रो रही है
उसका घर और पेड़
भीग रहे हैं उसके आंसुओं की
बारिश से
उसे उसका घर
आंसुओं की बाढ़ में बहता नजर आ रहा है

अब बाकी की कल सुणाणा यार
मेरे इसमें तेरी एक चीज समझ में आई
कि शहरों में सोफिंग माल बन रहे हैं
और ये ही इस कविता की क्या कहते हैं वो
जान है
और जान है तो जहान है
क्या ? (क्या के साथ ही...)

यार कुछ रूपैये चईए थे उधार
जेब में पड़े हो तो देना सौ-पचास
मुझे शाम को जाते वक्त क्या है
चौराहे से कुछ लेकर जाणा है
वो क्या कहा है न किसी सायर ने
जाती नहीं कम्बख्त मुंह को लगी हुई
मेरा पर्स आज घरवाड़ी ने निकाल लिया

अब चल तू डाक बणा फटाफट
मैं जरा सीआरसीएफ से मिलते हुए
घर निकलूंगा