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सो भी जाओ गीत मेरे / अमरेन्द्र

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सो भी जाओ गीत मेरे !
गुनगुनाऊँगा सबेरे ।

इस समय जी चाहता है
रात की बातें सुनूँ मैं,
केशµकाले मुक्त इसके
ओढ़ कर सपने चुनूँ मैं;
और फिर सपनों से खेलूँ
दृश्य को छाया बनाए,
मैं चलूँ सूरज तरफ तो
चाँद चुपके से बुलाए !
तारकों के बीच से यह
आज मुझको कौन हेरे ?

किस तरह थिर पवन चंचल
चित्त से हैं होड़ लेते,
देख कर विपरीत वेला
स्वयं दिशा को मोड़ लेते;
नींद की खामोशियाँ हैं
काल-दिक हैं घोर चुप-चुप,
मीन के संवाद सुन कर
हैं नदी के कोर चुप-चुप ।
शान्ति के इस लय-निलय में
जाल मत फेको मछेरे !