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जो भी हो जैसा समर हो / अमरेन्द्र
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जो भी हो जैसा समर हो,
यह मेरी व्रज्या अमर हो ।
जा रहा हूँ आऊँगा ही
शाम का संगीत ले कर,
सुरनदी-सी इस धरा पर
तुहिन-कण-सी प्रीत लेकर;
पंचवाणों को धरा हूँ
रसवती हो भूमि बन्ध्या,
भोर जैसी ही चहकती
खिलखिलाए मदिर सन्ध्या!
प्राण पुलकित, देह कुसुमित
चाँदनी-सी दोपहर हो !
सूई की ही नोक भर तो
सुख यहाँ सबको मिला है,
और सागर-सा उमड़ता
दुख यहाँ सबको मिला है;
मैं यहाँ आया हुआ हूँ
स्वर्ग का वह द्वीप खोजूं,
अतल जल की नाभि में धस
मोतियों के सीप खोजूं
मैं विकल, हो रात जूही,
मोगरे-सा दिन-बसर हो !