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कौन-सी यह बात मन में / अमरेन्द्र

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कौन-सी यह बात मन में
है छुपी, ज्यों, चाँद घन में ।

व्यक्त हो कर भी न होती
ढूँढती है ओट हरदम,
खुल के आने में हिचकती
ज्यों, लगे हैं चोट हरदम;
अर्थ आधा सामने में
व्यंजना-संवाद केवल,
दृश्य कुहरे में पड़ा-सा
तैरती है याद केवल;
सामने तो मेघ छाया,
नाचता है मोर वन में ।

नैन कर लूँ बन्द फिर भी
कौन-सा वह लोक देखूँ,
फैलता है गहन तम में
वह मधुर आलोक देखूँ;
मैं जिसे हूँ आज तक भी
कह न पाया, कह न पाऊँ,
शब्द को कुछ कोण देकर
बस यही चाहा, बताऊँ!
किस तरह से कह सकूँगा
भाव जो रमता भुवन में ?