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सब नहीं वह पीर जाने / अमरेन्द्र

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सब नहीं वह पीर जाने,
जो बंधाया कीर जाने ।

जुगनुओं को ही पता है
घोर तम कितना डराए,
रोशनी तो बून्द भर है
कालिमा, ज्यों, रेत छाए;
एक चुटकी सुख मिलेगा
कुछ नहीं उम्मीद इसकी,
पाल न पतवार, लंगर
है भँवर में नाव किसकी !
डूबतों की क्या व्यथा है
यह कथा तो तीर जाने ।

कण्ठ में विष को संभाले
खोज में भटकूँ अमिय की,
क्रुद्ध फन फुंफकारता अहि
गति पुरी है अब समय की;
इस अन्धेरी रात में मैं
नाम ले किसको पुकारूँ !
कौन बस्ती, पुर-नगर में
भाग्य को अब हाँक पारूँ !
साथ देंगे लोग कितने
यह तो राँझा-हीर जाने !