ये मत कहो / विजय कुमार विद्रोही
रूग्णदीप पोषित कर उसको आफ़ताब लिख देता हूँ ,
मैं पीड़ा के भाव बदलकर इंक़लाब लिख देता हूँ ,
पत्रकार या चित्रकार हो मुझको पड़ता फर्क़ नहीं ,
ओज छोड़ श्रृंगार लिखूँ मैं ये भी कोई तर्क नहीं |
लोकतंत्र है जन-गण-मन का दर्पण बनके डोलूँगा ,
रक्तिम, श्यामल जैसे भी हो सारे परदे खोलूँगा ,
तांडवजन्मा प्रलयअंश हूँ केवल रचनाकार नहीं ,
देशद्रोह के निजपुत्रों का कर सकता सत्कार नहीं ,
नित स्वप्नों में संविधान को मुर्दाघर में देखा है ,
लोकतंत्र नफ़रत दहशत के बीच भँवर में देखा है ,
जलते ध्वज की दुर्गंध कभी महसूस करो तब जानोगे,
लुट चुकी बेटियों-बहनों के दु:ख को समझो तब मानोगे |
जब नंगा बचपन सड़कों पर रो चीख-2 मर जाता है,
तब शर्मसार यौवन होता मन पीड़ा से भर जाता है ,
बहुत कठिन है ये आवेदन कैसे मैं स्वीकार करूँ,
कैसे मैं माँ का दर्द भुला दूँ कैसे मैं श्रृंगार करूँ ,
कैसे पल-पल जलते आँचल को अनदेखा कर दूँ ,
कैसे मैं हुंकार तजूँ मैं कैसे सरससौम्य स्वर दूँ |
चिपके पेटों को देखूँ तो भूख-भूख चिल्लाने दो ,
द्रोहशिखा रहने दो मुझको विद्रोही कहलाने दो |